
में पांचवी क्लास में था। टेलिविज़न पर विजेता फिल्म दिखाया जा रह था। फिल्म भी वो क्या थी कि मेरे तो रोंगटे उठ गये। मन में बस एक ही कवाब था कि फ़ौज में भर्ती हो जावूं। तब पापाके किसी दोस्त ने कहा कि सैनिक स्कूल नामक एक स्कूल हे जिसमे पड़ने से फ़ौज में नौकरी मिलना आसान हैं। और में एंट्रेंस परीक्षा जीतने के बाद चल पड़ा सैनिक स्कूल में पडने। अम्माको बिल्कुल नहीं पसंद था मेरा उस स्कूल में पड़ना लेकिन मुझे और पापा को था पसंद। स्कूल के पहले दिन बोहोत ही मुश्किल थे। अम्मा, पापा और भाई को छोड़ कर अकेले रहेना बोहोत कठिन था। स्कूल में पढ़ाई कम ओर दूसरे चीजों में ज्यादा ध्यान दिया जता था।
दोस्तें के मुकाबले मेरी शारीरिक क्षमता थी कम और इस वजह से मैं हमेशा होता था पीछे। सैनिक स्कूल ने मुझे बोहोत कुछ सिखाया। ढेर सारे दोस्त मिले वहां पर। हार से लड़ना सीखा, अपने पेरों पर खडे होना सीखा और आख़िर में स्कूल ने जीना सिखाया। गणित ने मेरा सात छोड़ दिया ग्यारहवी कक्षा में और मुझे लौटना पड़ा पराजय का भार अपने कंधे पर लेते हुवे इस महान स्कूल से।
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